सेक्यूलर शब्द वो पुछ्लग्गा जिसे संविधान से चिपकाने का काम 1976 में इन्दिरा जी ने किया।
आपातकाल से लेकर मूल संविधान से खिलवाड़, बांग्लादेश का निर्माण आदि उनकी विरासत है। हमारे संविधान में सेक्युलर और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द उन्होंने जोड़े। अब भारतीय संस्कृति के अनुसार सेक्युलर शब्द का सही अनुवाद मतनिरपेक्षता होती है। धर्म तो रोज़ के कर्तव्यों को कहते हैं। पर इंदिरा जी द्वारा संविधान में जोड़ने के कारण यह अनुवाद सही मान लिया गया है।
मौजूदा स्थिति में आसान लक्ष्य है 42वें संशोधन को उलट देना, जिसके तहत 1976 में प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए थे, जिन्हें भाजपा पसंद नहीं करती- ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी।’ संविधान सभा की बहस के दौरान प्रो. केटी शाह 15 नवंबर 1948 को प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष, संघवादी, समाजवादी’ जोड़ने में नाकाम रहे। फिर बहुमत से तय हुआ कि भारतीय राज्य धर्मनिरपेक्ष होगा पर प्रस्तावना में इसे जगह देना जरूरी नहीं है।
धर्मनिरपेक्षता खासतौर पर पश्चिम का शब्द है, जो प्रोटेस्टेंट सुधार और ‘एनलाइटनमेंट’ युग में हुए राजनीतिक बदलाव में जन्मा था। लेकिन, 20वीं सदी में यूरोप के बाहर के नेता जैसे मुस्लिम बहुल तुर्की के कमाल अतातुर्क और हिंदू बहुल भारत के जवाहरलाल नेहरू भी इससे आकर्षित हुए। दोनों ने इसे आधुनिकता की निशानी माना। नेहरू ने इसे उस धार्मिक व सांप्रदायिक शत्रुता को टालने का एकमात्र तरीका माना, जिसने देश का बंटवारा किया। क्या संविधान में यह शब्द शामिल करना जरूरी था? संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. बीआर आंबेडकर ऐसा नहीं मानते थे। उन्होंने कहा, ‘राज्य की नीति क्या होगी, सामाजिक व आर्थिक स्तर पर समाज कैसे संगठित होना चाहिए ये ऐसे मामले हैं जिन्हें लोगों द्वारा समय और परिस्थितियों के आधार पर तय किया जाना चाहिए। इसे संविधान में नहीं लिखा जा सकता, क्योंकि यह तो लोकतंत्र को ही खत्म करने जैसा होगा।’
फिर भी अनुच्छेद 25, 26, 27 और 28 में अपने धर्म के पालन और प्रचार की स्वतंत्रता की गारंटी से इसकी पुष्टि होती है कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा देश के संवैधानिक दर्शन में असंदिग्ध रूप से शामिल है। लेकिन, यह पश्चिमी शैली की धर्मनिरपेक्षता नहीं है, जिसका मतलब है गैर-धार्मिकता, जिसे तो वामदल (कोलकाता में दुर्गापूजा के दौरान वामदल सबसे भव्य पूजा पांडाल लगाने की होड़ में होते हैं) और दक्षिण की डीएमके जैसे नास्तिक दलों तक ने अपने मतदाताओं में अलोकप्रिय पाया। कुछ नेताओं की दलील है कि भारतीय सरकारें धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकती पर उन्हें पंथ निरपेक्षता (किसी विशेष पंथ का पक्ष न लेना) का पालन करना चाहिए। दरअसल ‘सेकुलरिज्म’ अत्यधिक धार्मिकता के भारतीय संदर्भ में गलत शब्द है। हमें तो ‘बहुलतावाद’ की बात करनी चाहिए। हिंदू बहुलता की जड़ें भिन्नता को स्वीकारने के दर्शन में पाई जा सकती है : एकम सत विप्रा बहुधा वदंति, सत्य एक ही है पर ज्ञानी इसे कई नामों से पुकारते हैं। लेकिन, सेकुलरवाद के हिंदुत्ववादी आलोचकों को बहुलतावाद भी आकर्षित नहीं करता।
बहुलतावाद यानी सेकुलरवाद के विपरीत धर्म को सक्रिय प्रोत्साहन। भारतीय धर्मनिरपेक्षता खुशी से धार्मिक स्कूलों को वित्तीय मदद देती है, भिन्न धार्मिक समुदाय के ‘पर्सनल लॉ’ हैं, वंचित हिंदू जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है, गोरक्षा के लिए नीति-निर्देशक सिद्धांत हैं। दोनों को संविधान की मान्यता है। धर्मनिरपेक्षता के भारतीय संस्करण के तहत सरकार की 1951 के धार्मिक और धर्मार्थ दान कानून के तहत सरकार हिंदू मंदिर का अधिग्रहण कर उसका संचालन कर सकती है और दान में मिली राशि ऐसे कार्यां में खर्च कर सकती जो वह उचित समझे। इसमें मंदिर से असंबंधित कार्य भी शामिल है। हिंदुत्व ब्रिगेड को यह सब पसंद नहीं है और वह हिंदू राज्य या कम से कम विशेष हिंदू पहचान वाले भारत के बदलाव के प्रोजेक्ट में इसे महत्वपूर्ण कदम मानती है। उनका दृष्टिकोण सुनो तो कई बातें कही जाती हैं- मुस्लिम समुदाय में पिछड़ी परम्पराओं को बिना कुछ कहे स्वीकारना, जबकि हिंदुओं से प्रगतिशील व्यवहार की अपेक्षा रखना, अल्पसंख्यक शिक्षा को समर्थन जबकि हिंदुओं को ऐसी मदद से वंचित रखना, हिंदुओं में परिवार नियोजन का प्रचार पर मुस्लिमों में नहीं। कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के नेतृत्व में मुस्लिम वोट बैंक बनाना पर ऐसे हिंदू नेताओं का निरादर करना आदि।
नतीजे में मुस्लिम ‘तुष्टीकरण’ की व्यापक धारणा बनी, जो मुस्लिमों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के आंकड़ों और आवास तथा रोजगार में भेदभाव को देखते हुए अजीब लगती है। फिर भी हिंदुत्व के नेता यह धारणा कायम करने में सफल रहे कि सरकारी लाभ अल्पसंख्यकों के पक्ष में हैं और इस तरह वे हिंदू के अपने अभियान का औचित्य साबित करते हैं। इन्हीं कारणों से दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था, ‘धर्मनिरपेक्षता का मतलब है हिंदुओं का विरोध और मुस्लिम व अन्य अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण। हमें इस शब्द से जितनी जल्दी संभव हो पिंड छुड़ा लेना चाहिए। भारतीय संदर्भ में यह एकदम अप्रासंगिक है।’
कोई यह तर्क दे सकता है कि 42वां संशोधन तो केवल एक शब्द रखने की बात थी, जबकि उसकी भावना तो गहराई से जमी है और सरकार के कार्यों में मूर्त रूप में मौजूद है। ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द जाने से देश कम धर्मनिरपेक्ष नहीं हो जाएगा।
संविधान पहले भी कई बार बदला है। संविधान.. निकट भविष्य में बदला भी जा सकता है…
Lovely, informative, thnx to share
Thanks a lot for appreciation and motivation
Pleasure, बेहतरीन लेख के लिए हार्दिक बधाई
Thanks for encouragement 🙏
आभार आपका 🙏
Wah