जिस पॉपकॉर्न और कोल्डड्रिंक को हम बाहर 30-30 रुपये में पीते हैं उसकी कीमत उछलकर अचानक सिनेमा हॉल में 300-400 तक पहुंच जाती है।और टिकटों के आसमान छूते मूल्यों का क्या कहना।
एक स्टार को स्टार, आम से ख़ास हम ही बनाते हैं। लखपति से करोड़पति फिर अरबपति हमारी जेब से झड़े पैसे ही बनाते हैं।
क्या फिल्मी कलाकारों के अलावा प्रतिभा समाज में कहीं और नहीं होती???
हम हर कला को समान दृष्टि से क्यों नहीं देखते…
ये विषमता आखिर क्यों???